भारतीय संविधान की प्रस्तावना

 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना: इतिहास, उद्देश्य, संशोधन और न्यायिक व्याख्या


भारतीय संविधान की प्रस्तावना


संविधान की प्रस्तावना क्या है?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble of Indian Constitution) हमारे संविधान का आदर्श वाक्य है, जो इसकी आत्मा और मूल भावना को व्यक्त करती है। यह राष्ट्र के लक्ष्यों, आदर्शों, और मूलभूत उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से दर्शाती है।


प्रस्तावना का इतिहास (History of the Preamble)

संविधान की प्रस्तावना का विचार अमेरिका से प्रेरित है। संविधान सभा में यह डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में तैयार की गई थी। प्रस्तावना के प्रारूप को संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को स्वीकार किया था, और इसे 26 नवंबर 1949 को संविधान के अंग के रूप में अपनाया गया।


प्रस्तावना का उद्देश्य (Objective of the Preamble)

प्रस्तावना का प्रमुख उद्देश्य भारतीय संविधान के मूल उद्देश्यों को स्पष्ट करना है। ये उद्देश्य हैं:

  • न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक)

  • स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की)

  • समानता (अवसरों और स्थिति की समानता)

  • बंधुता (व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करना)


प्रस्तावना किस देश से ली गई है?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रेरणा मुख्य रूप से अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से ली गई है। हालांकि इसमें भारतीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार विशेष परिवर्तन किए गए हैं।


प्रस्तावना की भाषा और शैली

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को सरल, स्पष्ट और काव्यात्मक शैली में लिखा गया है। इसकी भाषा आधिकारिक हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में उपलब्ध है। इसकी शैली अमेरिका की प्रस्तावना से प्रेरित है लेकिन भारतीय मूल्यों के अनुसार परिष्कृत की गई है।


प्रस्तावना के बारे में प्रमुख व्यक्तियों के विचार

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर: "संविधान की प्रस्तावना संविधान की आत्मा है।"

  • पंडित नेहरू: "यह संविधान की आधारशिला है, जो भारत के लक्ष्यों को दर्शाती है।"

  • केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट: "संविधान की प्रस्तावना उसकी मूल संरचना का हिस्सा है।"


भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना (Preamble in Hindi)

हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए; और उसके समस्त नागरिकों को:

न्याय: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक;
स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की;
समानता: अवसर की समानता और प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने वाली;

और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली

बंधुता बढ़ाने के लिए;

दृढ़ संकल्प होकर, अपनी संविधान सभा में आज, 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छः) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।


क्या प्रस्तावना में कभी संशोधन हुआ है?

हाँ, भारतीय संविधान की प्रस्तावना में अब तक केवल एक बार संशोधन हुआ है।

संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के तहत:

प्रस्तावना में निम्नलिखित तीन शब्द जोड़े गए:

  1. समाजवादी (Socialist)

  2. धर्मनिरपेक्ष (Secular)

  3. एकता और अखंडता (Unity and Integrity)

यह संशोधन आपातकाल के दौरान किया गया था और इसका उद्देश्य प्रस्तावना को देश की तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप बनाना था।


प्रस्तावना में संशोधन कैसे किया जा सकता है?

संविधान की प्रस्तावना को भी अन्य अनुच्छेदों की तरह संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधित किया जा सकता है, लेकिन यह केवल तभी संभव है जब मूल संरचना (Basic Structure) को क्षति न पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तावना संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।


प्रस्तावना से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले

1. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)

  • इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा है।

  • इसका संशोधन किया जा सकता है, लेकिन इसकी मूल भावना को नष्ट नहीं किया जा सकता।

2. बेरूबारी यूनियन केस (1960)

  • कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है।

  • बाद में केशवानंद भारती केस में इस पर पुनर्विचार हुआ।

3. एस. आर. बोम्मई केस (1994)

  • सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना में उल्लेख धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की अनिवार्य विशेषता बताया।


निष्कर्ष

भारतीय संविधान की प्रस्तावना केवल एक औपचारिक वक्तव्य नहीं है, बल्कि यह भारतीय गणराज्य के मार्गदर्शन का आधार है। यह न केवल नागरिकों को उनके अधिकारों की याद दिलाती है, बल्कि राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का बोध भी कराती है।

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