भारतीय संविधान का 5वां संशोधन (1955)
भारतीय संविधान का 5वां संशोधन (1955) – एक विस्तृत विश्लेषण
अनुक्रमणिका
- परिचय
- क्या था यह 5वां संविधान संशोधन?
- यह संशोधन क्यों जरूरी था?
- सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
- परिणाम और प्रभाव
- निष्कर्ष
परिचय
भारत के संविधान में अब तक 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं, जिनमें से कई ने देश की राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण बदलाव था – 5वां संविधान संशोधन, जो वर्ष 1955 में पारित हुआ था। यह संशोधन मुख्य रूप से राज्यों की सीमाओं और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित था।
क्या था यह 5वां संविधान संशोधन?
भारतीय संविधान का 5वां संशोधन वर्ष 1955 में पारित किया गया था। यह मुख्य रूप से अनुच्छेद 3 और अनुच्छेद 4 से जुड़ा हुआ था। इस संशोधन का मकसद यह था कि जब देश में किसी राज्य की सीमा बदली जाए, नया राज्य बनाया जाए, या किसी राज्य का नाम बदला जाए, तो उसके साथ-साथ उस राज्य में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों या अनुसूचित क्षेत्रों की सूचियों में भी तुरंत बदलाव किया जा सके।
✅ इसे एक उदाहरण से समझिए:
मान लीजिए कि सरकार ने एक नया राज्य बनाया — जैसे कि भविष्य में किसी बड़े राज्य को बांटकर नया राज्य बना दिया जाए। उस राज्य के अलग होते ही, वहां रहने वाली जनजातियाँ अब नए राज्य में होंगी, लेकिन उनकी पहचान और सुविधाएं अब पुराने राज्य के नाम से जुड़ी हैं।
ऐसी स्थिति में बिना संशोधन के, इन जनजातियों को कानूनी रूप से पहचान और अधिकार मिलने में काफी देर हो सकती थी, क्योंकि संविधान में उनका नाम, पुराने राज्य से जुड़ा होता।
इसलिए यह संशोधन जरूरी था — ताकि जैसे ही कोई राज्य विभाजित हो या नया राज्य बने, उन क्षेत्रों और जनजातियों की पहचान भी तुरंत नए राज्य के अनुसार अपडेट की जा सके।
यह संशोधन क्यों जरूरी था?
- अनुच्छेद 3 के तहत संसद को राज्य की सीमाओं में बदलाव का अधिकार तो था, लेकिन इससे जुड़ी अनुसूचित जनजातियों की स्थिति अस्पष्ट थी।
- किसी राज्य का विभाजन या नया राज्य बनने पर, जनजातीय क्षेत्रों को कानूनी पहचान देना जरूरी था।
- इस संशोधन के बिना, अनुसूचित जनजातियों को उनके अधिकारों में देरी या बाधा आ सकती थी।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
हालांकि संविधान के 5वें संशोधन को लेकर कोई सीधा ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट का फैसला उपलब्ध नहीं है, लेकिन इससे संबंधित कई मुद्दों पर अदालत ने समय-समय पर अपनी संवैधानिक व्याख्या दी है।
📌 संसद की शक्ति बनाम जनजातीय अधिकार:
संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत संसद को यह अधिकार है कि वह किसी राज्य की सीमा बदल सकती है, नया राज्य बना सकती है या नाम बदल सकती है। परंतु जब इन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियाँ रहती हैं, तो उनके अधिकारों की रक्षा भी एक संवैधानिक जिम्मेदारी है।
इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह स्पष्ट किया कि:
- राज्य का पुनर्गठन करते समय जनजातीय अधिकारों की अनदेखी नहीं की जा सकती।
- अगर कोई जनजातीय इलाका एक राज्य से हटाकर दूसरे राज्य में जोड़ा जाए, तो उनकी सामाजिक स्थिति और अधिकारों की निरंतरता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
⚖️ एक प्रासंगिक केस: Berubari Union Case (1960)
हालांकि यह केस सीधे 5वें संशोधन से नहीं जुड़ा है, लेकिन इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 3 और 4 की व्याख्या की थी।
कोर्ट ने कहा कि: "राज्यों की सीमाओं में बदलाव करने का अधिकार संसद के पास है, पर वह संविधान के बुनियादी ढांचे और नागरिकों के अधिकारों के साथ समझौता नहीं कर सकती।"
सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि ऐसा करते समय जनजातीय अधिकारों, पहचान और विकास योजनाओं को प्रभावित न किया जाए।
परिणाम और प्रभाव
- संविधान में स्पष्टता आई कि राज्य बदलने पर अनुसूचित जनजातियों की सूची भी स्वचालित रूप से अपडेट की जा सकती है।
- प्रशासनिक प्रक्रिया सरल हुई और समय की बचत हुई।
- जनजातीय समुदायों को उनके अधिकार समय पर मिल सके।
निष्कर्ष
5वां संविधान संशोधन भारत के राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को बेहतर बनाने की दिशा में एक आवश्यक कदम था। इसने यह सुनिश्चित किया कि जब भी राज्य की सीमाएं बदली जाएं, तो वहाँ रहने वाली जनजातियों के अधिकार भी उसी अनुसार सुरक्षित रहें। यह संशोधन देश के संविधानिक लचीलापन और समाज के कमजोर वर्गों के प्रति प्रतिबद्धता का प्रमाण है।
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