केशवानंद भारती केस (1973)
केशवानंद भारती केस (1973) और संविधान की मूल संरचना सिद्धांत
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य भारत के संवैधानिक इतिहास का एक ऐतिहासिक मुकदमा है, जिसने भारतीय संविधान के मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) की नींव रखी। यह केस न केवल संविधान की व्याख्या करता है, बल्कि यह तय करता है कि संसद की शक्तियां असीमित नहीं हैं।
📑 विषय सूची (Table of Contents)
- केशवानंद भारती केस का परिचय
- इस सिद्धांत की आवश्यकता क्यों पड़ी?
- मूल संरचना सिद्धांत क्या है?
- इससे पहले क्या हुआ था?
- सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
- इस फैसले का प्रभाव
- निष्कर्ष
❓ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
केशवानंद भारती केस का परिचय
यह केस 1973 में केरल के एक संत केशवानंद भारती द्वारा दायर किया गया था। उन्होंने राज्य सरकार के उस कानून को चुनौती दी, जिसमें उनके आश्रम की संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान था। उन्होंने तर्क दिया कि यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और 13 जजों की पीठ ने इस पर ऐतिहासिक फैसला दिया।
इस सिद्धांत की आवश्यकता क्यों पड़ी?
1960 और 70 के दशक में केंद्र सरकार ने कई बार संविधान में संशोधन कर मौलिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास किया। 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों ने संसद को असीमित शक्तियां देने का मार्ग प्रशस्त किया। इससे संविधान के मूल सिद्धांत खतरे में पड़ गए, इसलिए यह सवाल उठा कि क्या संसद को संविधान की मूल आत्मा भी बदलने का अधिकार है?
मूल संरचना सिद्धांत क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान की कुछ मूल बातें जैसे लोकतंत्र, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, विधि का शासन आदि ऐसी चीजें हैं जिन्हें संसद बदल नहीं सकती। इन्हीं को "मूल संरचना" कहा गया। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि सरकार चाहे कितनी भी शक्तिशाली हो, वह संविधान की आत्मा को नहीं बदल सकती।
इससे पहले क्या हुआ था?
इन मतभेदों को हल करने के लिए ही 13 जजों की पीठ बनाई गई और केशवानंद भारती केस आया।
- **शंकर प्रसाद केस (1951):** कोर्ट ने माना कि संसद को संविधान में संशोधन का पूर्ण अधिकार है।
- **सज्जन सिंह केस (1965):** कोर्ट ने फिर यही कहा कि संसद मौलिक अधिकारों को भी बदल सकती है।
- **गोलकनाथ केस (1967):** कोर्ट ने इस राय को बदलते हुए कहा कि संसद मौलिक अधिकारों को नहीं छू सकती।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
24 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट ने **7-6 के बहुमत** से ऐतिहासिक फैसला दिया:
- संसद संविधान में संशोधन कर सकती है,
- लेकिन वह मूल संरचना (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।
यह भारत के न्यायिक इतिहास की सबसे लंबी सुनवाई थी, जो 68 दिन तक चली।
इस फैसले का प्रभाव
इस फैसले के बाद से संसद के पास संविधान में बदलाव की शक्ति सीमित हो गई। इससे संविधान की आत्मा की रक्षा हुई। यह फैसला लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक मजबूत ढाल बना और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) को बल मिला।
निष्कर्ष
केशवानंद भारती केस केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की दिशा में एक निर्णायक मोड़ था। यह फैसला आज भी हर नागरिक के अधिकारों की रक्षा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि संविधान केवल सरकार के लिए नहीं, बल्कि **जनता की संप्रभुता** के लिए खड़ा है।
❓ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
केशवानंद भारती कौन थे?
वे केरल के एक हिंदू मठ के प्रमुख थे (एडनीर मठ), जिन्होंने अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
मूल संरचना सिद्धांत का मतलब क्या है?
यह सिद्धांत कहता है कि संविधान की कुछ मूल बातें (जैसे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता) संसद द्वारा बदली नहीं जा सकतीं।
यह फैसला कब आया?
यह ऐतिहासिक फैसला 24 अप्रैल 1973 को सुनाया गया।
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